- Pamper yourself and love yourself: Go for spa treatment or leisure walk, which will raise your spirits and revitalize both body and mind.
My Frnds
Monday, May 14, 2012
It's Easy to be Happy....
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Saturday, December 31, 2011
New Year..New Hopes..New Wishes..New Dreams.!
Sunday, November 27, 2011
Emotional confusion.. !!
Tuesday, November 1, 2011
भूल गए..!!
Friday, June 10, 2011
First Month of Corporate Life..!!
With the end of May, 2010 comes to an end my first month of corporate life. To put the experience in words would be a bit difficult, but let me give it a shot too.
Aahh… no more waking up till late night & sleeping till afternoons.. no more lame excuses of food poisoning or stomach upset..
Reaching the company campus dressed in formals, all jittery, excited & “hopeful” at the same time.. well, the “hope” has no guarantee of how long it stays within.
The first two days of induction & company welcome seems so much prestigious as honoring the guests, but it is only once the “honeymoon period” is over that we realize it was just a commercial ad with lots of “terms & conditions applied”.
Your team fellows, seniors, staff appears to be quite co-operative, friendly, helpful, approachable & pleased to have us with them. Although that is also valid only till the training time gets over, which we used to call our “last tension-free days of life”..!
However, this is how I have come to realize the ground realities & bitter truth of corporate life with the end of my first month of job, successfully, as I have received my first salary, which is the only good thing that has happened to me in the last few days.
The weekends are the only bliss, for which we wait the whole week eagerly.. because that’s the only time when we can wash clothes, iron them, buy grocery, meet friends, shop etc.
Welcome to the Corporate World !!
Monday, November 15, 2010
GET UP n GET IT.. !!
Thursday, November 4, 2010
ON DIS DIWALI..!!
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
- Harivansh Rai Bachchan
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है..!!